राजस्थानी त्यौहार “गणगौर”-गौरा और ईसरजी की कहानी

राजस्थानी त्यौहार “गणगौर”

राजस्थान में गणगौर का महत्व बहोत है। ये एक पौराणिक त्यौहार है। ये शिव पार्वती के रूप गौरा और ईसरजी की याद में मनाया जाता है। ये फेस्टिवल जयपुर से शुरू हुआ था।

राजस्थान रंगो भरा राज्य है। उसमें रंग भरते है उसके अलग-अलग त्यौहार और उसकी संस्कृति। हर राज्य की संस्कृति की अपनी एक पहचान होती है, वहाँ की वेश-भूषा और उसके त्यौहारो से। भारत का एक राज्य हैं,  राजस्थान जो जाना जाता है अपने अदम्य साहस, वीरता, शौर्य और बलिदान से। राजस्थान की राजधानी है जयपुर। विरासत और त्यौहारों की खुशबू अपनी इसी विरासत के बलबूते  जयपुर आज विश्व धरोहर में शामिल हैं।

वैसे तो हर दिन जयपुर में कोई न कोई वार-फेस्टिवल मनाया ही जाता है इसीलिए इसे  त्योहारों की नगरी कहा जाता है। किसी भी फेस्टिवल पर ऐसा Festival City of India लगता है जैसे सारा शहर एक ही रंग में रंग गया हो। इसी त्यौहारों की नगरी में राजस्थान का सबसे बड़ा फेस्टिवल मनाया जाता है “गणगौर” । राजस्थान में ही नहीं पूरे भारत में मारवाड़ी समाज में ये त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। और पूरे रिति-रिवाजो के  साथ मनता है। और इसकी शुरुआत राजा के महल से हुई जिसे सिटी पैलेस भी कहते है। 

राजस्थानी त्यौहार "गणगौर"
राजस्थानी त्यौहार “गणगौर”

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार गणगौर का फेस्टिवल – शिव-पार्वती’ की आराधना के लिए मनाया जाता है। होली के अगले दिन ही शुरू होने वाला यह फेस्टिवल 16 दिन तक चलता है। महिलाएं इसे अपने सुहाग की लम्बी आयु के लिए मनाती है। मान्यता है कि मां पार्वती अपने विवाह के बाद 16 दिनों के के लिए अपने पीहर चली गई और उन्हें लेने स्वयं भगवान शिव गये। इसी मान्यता को लिए आज भी नव विवाहित वधुएं शादी के बाद अपने मायके जाती है और 16 दिनो तक गणगौर की पूजा करके अपने सुहाग की लम्बी आयु की कामना करती है।

गणगौर के दिन मां पार्वती की सवारी city-Palace से निकलती है तब सारे शहर वासी मां की छवि देखने के लिए उत्सुक रहते है और मां का स्वागत करते हैं।

“गणगौर” क्या है 

गणगौर मां पार्वती का रूप है और ईसर भगवान शिव का अवतार ।

गणगौर का फेस्टिवल हिन्दू संस्कृति का आखिरी त्यौहार होता है और कहा भी जाता है कि 

तीज त्यौहारा बावडी, ले डूबी  गणगौर

गुजरते दौर के साथ हमारे उत्सव  भी बदल रहे है। फेस्टिवल का उत्साह तो आज भी सभी के ह्रदय में भरा है। लेकिन कहीं न कही उत्सवों की रौनक पहले जैसी नहीं रही। फेस्टिवल हमारी संस्कृति के रंग बिखेरते है। और हमारी परंपरा को निभाते भी है। गणगौर फेस्टिवल पर सभी कंवारी लडकियां सुबह जल्दी उठकर मां पार्वतीक ईसर जी के गित गाती है। सुह‌ागिनें सोलह श्रृंगार सज-धज कर तैयार होती है और गौर मां की पूजा करती है। हाथों में गणगौर मां को लिये सुबह जल पीलाने के लिए कुओ के पास जाती है। फिर मां के आगे धूपरपेया जाता है। माँ को मीठे प्रसाद का भोग लगाया जाता है। खूब नाचते-गाते हुए मां गौरा- ईसर जी को प्रसन्न करते है।

राजस्थानी त्यौहार “गणगौर”

गौर माता पार्वती को चुनड़ी तारो जड़ी पहनाई जाती है तो ईसर जी को पीला – पेचा बांधा जाता है जो उनके सौन्दर्य को ओर निखारता है।

बहिने अपने पीहर में चुनड़ी के लिए अपने भाई-भतीजों से कहती है। वहीं कुंवारी लड़कियों को गौर के उत्सव  पर नये कपडे दिलाये जाते है। उनसे कहा जाता है कि वो भी अपने भावी जीवन में भगवान शिव के जैसा जीवन साथी पाने की कामना करते हुए माँ गौरा और ईसर जी को सुमिरन करे। कहा जाता है कि हे गौर माता आप हमे अन्न देना, धन देना, लाख देना, लक्ष्मी देना, कानकांवर सा भाई देना राई सी भुजाई देना, खेत खलिहान मोकळे देना चूडला वाली नणद देई, मगर आपके जैसी कुख मत देना।

इसके पीछे भी एक कथा है कि जब एक बार मां पार्वती और भगवान शिव विश्व भ्रमण को निकले तो रस्ते  में मां को सबसे पहले एक भैंस प्रसव पीडा से दुःख पाती हुई मिली। फिर आगे जाने पर राजा के राज्य की रानी  को भी इसी दुख से पीडित देखा तो भगवान से बोली हे प्रभु माँ  बनना अगर इतना दुःखदायी हैं तो आप मेरे गांठलगा दीजिय भगवान ने मां को बहुत समझाया लेकिन उन्होंने एक बात भी नही सुनी और हठ करके बैठ गई। तब भगवान ने मां के रूठ कर बैठ जाने पर उनकी बात को मान लिया और गांठ लगादी लेकिन जब माँ ने आगे लोगों को गाव में हंसते-गाते नाचते मिठाईया खाते देखा तो पूछा कि ये उत्सव  किस लिए है। तब गाव वाले बोले राज्य की रानी के पुत्र हुआ है इसलिए राज्य के चारो तरफ ख़ुशी छाई हुई है।

अब माँ को भी संतान पाने की चाह जग गई, तब उन्होंने भगवान से कहा मुझे भी पुत्र चाहिए। तब भगवान ने माँ के लगाई हुई गांठ वापिस खोल दी और खुशी खुशी  देवलोक वापस चले गए।

इसीलिए कहा जाता है कि कभी भी जिद्द नहीं करना चाहिए क्योंकि जिद्द न जाने क्या अनर्थ करवा डाले। वो भगवान का समय सतयुग में था मगर आज समय बदल गया है। जो संस्कार हमें  मिले वो  हमे अपनाना चाहिए।

 

  गणगौर वाले दिन हमारे घरो मे पहले माँ  की शाम को पूजा होती है। कंवारी लड़किया दीपक जलाकर उसको चालनी से ढककर पूजती है और अपने, बड़ों के पास जाकर पैसे मांगती हैं। फिर सुबह सुहागिने माँ के आगे हरी दूब और रोली मेहंदी से मां की पूजा -श्रृंगार करती है। फिर दही को थाली में लेकर के उसमे चांदी का छल्ला डालके माँ गणगौर के सामने एल खेल करती है और नदी बहा देती है दही की और गाना गाती है

एलखेल नदी बहुव औ पानी किन जासीरे

आधा पानी नदी  में जासी, आधा ईसर नासी से रे ।

फिर कंवारी लड़किया उस थाली को लेने के लिए भागती है और उसको मिट्टी से साफ करके रखती है। इसके पीछे कहा जाता है कि ऐसा करने पर उनको ईसर जैसा सुन्दर जीवनसाथी मिलेगा।

बाजरी-गेहके ढोकले बनाये जाते है जिनको मां के फल 5. कहा जाता है और वो ही मां को चूढ़ाये जाते हैं। इसदिन तवा नहीं चढ़ता है। जबतक गौर अपने ससुराल नहीं चली जाती है तबतका बहन-बेटियो को गौर के सिंधारे करवाये जाते हैं। उनकी कपडे-रुपये सब दिये जाते है। बहुए भी सजी संपरी बहनों के भाइयों की लम्बी उम्र की प्रार्थना करती हैं।.,

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